साधना के माध्यम से ही मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुंचता है। यह तभी संभव है जब वह परमात्मा को अपना केंद्र बिंदु मान ले। परमात्मा यानी परमपुरुष आध्यात्मिक साधकों को आगे बढ़ने के लिए आकर्षित करते हैं। दूसरी तरफ आध्यात्मिक साधक अपने प्रयास से, अपने नैतिक बल से उनकी ओर बढ़ते हैं। फलस्वरूप मनुष्य अपने गंतव्य तक पहुंच जाता है। यदि कुछ लोग यह अनुभव करते हैं कि परमपुरुष की सहानुभूति और कृपा उन पर नहीं है, तो वे उन्हें अपनी ओर नहीं खींचते हैं। इसलिए हर एक आध्यात्मिक साधक को नियमित साधना के साथ-साथ नैतिकता में ज्यादा से ज्यादा प्रतिष्ठित होना चाहिए और उनके प्रति अधिक से अधिक भक्ति जागृत करना चाहिए। ऐसा करने पर वे परमपुरुष की कृपा का अनुभव करेंगे।
यह उचित नहीं है कि जो पाया, वही खाया। तुम्हें वही भोजन खाना चाहिए जो शरीर, मन और आत्मा पर लाभदायक प्रभाव डाल सके। मनुष्य के लिए यह उचित नहीं है कि जो भोजन उपलब्ध है, वही खा लिया। इस संबंध में भगवान शिव ने कहा है- उचित भोजन, उचित व्यवहार से शरीर का पवित्रीकरण और शुध्दिकरण करने के बाद कुछ अन्य अभ्यासों का भी अनुशीलन करना चाहिए। अब सभी जगह, लगभग शत प्रतिशत मामलों में मनुष्य की मानसिक संभावनाओं की बर्बादी हो जाती है। मनुष्य की मानसिक शक्तियों की संभावना बहुत है, किंतु लोग इन संभावनाओं का उपयोग न कर अपने मूल्यवान समय का उपयोग व्यर्थ की चिंता में करते हैं।
मान लो मनुष्य कि आयु साठ वर्ष है। इसमें बीस वर्ष सोने में ही बीत जाते हैं, शेष चालीस वर्ष व्यर्थ के क्रिया-कलापों और छोटी-छोटी बातों में निकल जाते हैं। मनुष्य वास्तव में अच्छे कामों में लगाने के लिए कितना समय पाता है? इस मानसिक अभिचार को शारीरिक चेष्टा, मानसिक चेष्टा या आध्यात्मिक-मानसिक चेष्टा से रोकने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य को अपनी श्वसन प्रणाली पर भी नियंत्रण करना चाहिए, क्योंकि इसका प्रवाह विचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता है। जब भी तुम कुछ स्थूल किया करते हो, तुम्हारी सांसों की गति तेज हो जाती है और जब तुम किसी सूक्ष्म का चिंतन करते तब इसकी गति कम अन्यथा अत्यंत कम हो जाती है। और जब सही से सांस चलने लगती है तो वह चिंतन प्रवाह के साथ एक हो जाती है। उस स्थिति को ‘हठयोग समाधि’ कहा जाता है। यानी शारीरिक प्रवाह मानसिक प्रवाह के साथ एक हो जाता है। इसलिए सांस पर कुछ हद तक नियंत्रण अति आवश्यक है। इसके साथ विवेक और विवेकशील के दायरे को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना चाहिए। इसके लिए शारीरिक स्तर से निकलने वाले अनावश्यक प्रवाहों को हटाना चाहिए।
मानसिक स्तर पर भी मन से निकलने वाले अनावश्यक प्रवाहों को हटाना चाहिए, यह मन के भार को हल्का कर देगा। मन से निकलने वाले इन अनावश्यक और व्यर्थ विचारों को हटाने या इनके प्रत्याहार से मानस तत्व के बड़े भाग को विवेकशील बनाने में सहायता मिलती है। इसलिए इसका अभ्यास अवश्य ही करना चाहिए। मनुष्य को पता होना चाहिए कि वह कहां से आया? इसे कहां जाना है? यह परमात्मा से आया है और परमात्मा में मिल जाएगा। आध्यात्मिक साधकों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।
0 Comments